बचपन में स्कूली शिक्षा के दौरान पिकनिक पर जाना याद होगा आपको, अब पिकनिक इंटरनेशनेल लेवल की होती है। बच्चे अक्सर विदेश आना जाना कर चुके होते हैं और एयरपोर्ट उनके लिये वैसे ही पहचाना हुआ स्थल है, जैसे हमारे लिये सदर बाजार की चूड़ी वाली गली।
मैचिंग कंगना हाथ में न हो तो महिला छत से कूदकर जान दे सकती है, महापाप है अगर सांप केंचुली वाली बिंदी पूरे माथे पर डंक बिछाये न बैठी हो। हमारा बचपन, कपड़े- रंग- मैचिंग- लंबाई- मोटापे- आकार- दिखावे को सूक्ष्मता से नापने में निकल जाता है, क्योंकि आसपास यही हो रहा होता है।
निज व्यक्तित्व की गहराई की बात कोई नही करता, लोग उबासी- जम्हाई भरने लगते हैं। नोट बताओ नोट, कितने नोट हैं अंटी में। कौन सी कार आज खरीदी, दिखाओ हाथ में राडो पहनी की नही।( एक घड़ी की ब्रांड है राडो, ब्रह्माण्ड का समय बताती है, इसे पहनो ) किस ब्रांड की कमीज है, कौन से नक्षत्र से पैंट, साॅरी trousers लाये हो, बताओ।
यह धरती तुम्हारे लायक नहीं है, तुम अलग हो, बहुत उच्च। तुम सूर्य देव की तरह जगत पोषक हो बाकी सब हीन हैं। बल्कि अपना स्वयं का orbit बनाओ, कहाँ कीचडों के बीच अमूल्य जीवन बरबाद कर रहे हो तुम।
एक बार स्कूल से पास के ही अनाथालय भी आपको लेकर गये होंगे और अगले साल से आपने निर्धारित दिन पर छुट्टी मारनी शुरू करी होगी। वहाँ अनाथ बच्चों के हजूम को देखकर आपको अनुभव कराना होता था कि आप कितने भाग्यशाली हो कि घर और माँ बाप हैं, you are blessed।
आप आत्मग्लानी से भर जाओगे कि तुम चैन से घर में मौज कर रहे हो और वहाँ कमरे भरकर अनाथ बच्चे सिर खुजला रहे हैं। आपको दान देने की तीव्र इच्छा होगी और आप अपनी माँ से पैसे सामान कपड़े आदि देने के लिये ज़िद करेंगे। यह विधा चली आ रही है और इसपर कोई आक्षेप नही दिया जा रहा है। यही दुनिया है।
एक समय था जब भिखारी को देने के लिये जेब में सिक्के लेकर लोग घर से निकलते थे ताकि नोट बचा रहे या घर की दहलीज के पास कुछ वस्तु जैसे बचा खाना बासी मिठाई खोटे सिक्के आदि रखने का प्रचलन था। खैर।
मैनें निगाह मिलते ही मुस्करा कर सलाम किया, वो दोनों भी झट से smile किये। अच्छी उम्र के पति पत्नी और उनके बच्चे आस पास ही थे।अंदाजा है कि यह एक परिवार अपने मित्रों के समूह के साथ किसी उपलक्ष्य में भोजन करने आये थे। विभिन्न उम्र के अनेक परिवार के सदस्य बिल्कुल रिलैक्स मूड में पकवान मंगा रहे थे, और सिजलर के धुआं छोड़ते आगमन पर छोटे बच्चे ताली बजाकर हँसते हुए स्वागत कर रहे थे।
बीच में व्हीलचेयर पर बैठी बुजुर्ग महिला भी ताली बजाते हँस रहीं थीं। उनके सफेद बाल, चेहरे पर रेखाओं का जाल, हल्के से कांपते हाथ और होंठ शरीर का अंग थे और सिल्क की प्रिंटेड साड़ी के पल्लू से दोनों कंधे ढके हुए थे। उन पंद्रह लोगों के समूह से रैस्टोरेंट में ठहाके सुनाई दे रहे थे। मैनें नोट किया कि बेवजह मम्मी जी को ‘ये लो वो लो इसे ट्राय करो, और क्या लोगे पहले आप लो’ ऐसी प्रताड़ना नही दी जा रही थी। वे आराम से अपने हिसाब से जो इच्छा हो वो प्लेट में लेकर स्वाद ले रही थीं। बीच बीच में प्लेट भी इशारे से मांग रही थीं। देखकर ऐसा लगा कि वो ऐसे माहौल से चिरपरिचित हैं। सम्पन्नता का सुख व्याप्त था। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि स्वर्ग धरती पर ही है, हमारे समक्ष, आज, अभी। जी भरकर इस दृश्य को सोख लो, फिर नही मिलेगा यह अलौकिक सुख।
रैस्टोरेंट में बासी दाल और दम आलू खाने की विवशता हमारे लिये कभी कभी उठ आती है, जब रसोई से हमारा जी भर जाता है। लौंडे को पता है हम हर बार यही मंगाते हैं, दम आलू दाल मक्खनी और एक एक नान रोटी, चाहे पूरा मैन्युअल पढ़ डालें। वो कागज़ पर लिखने की ज़हमत भी नही उठाता। दो जन क्या क्या खा लेंगे यह सोचकर दिमाग नही चलता।
जहाँ तक नज़र दौडाएंगे, होटल रैस्टोरेंट में बुजुर्ग स्टाफ आपको नही दिखेगा। रिसेप्शन पर यंग एंड ब्युटिफुल, सर्व करने के लिये यंग एंड एनर्जीटिक, बस सामान ढोने के समय लटके चेहरा झुके कंधे आगे कर देते हैं। भीतर रसोई में कौन लपाडिये कैसे क्या पका रहे हैं यह सोचकर आँख मींच लेती हूँ। कमबखत खोपड़ी के बाल और बीड़ी के सुटटे भी डिश को garnish करे मिले हैं।
आपको परिपक्व लोग सुबह और शाम के अंधेरे में वाॅक करते मिल जायेंगे सड़क किनारे, यूनिवर्सिटी की हरियाली में। वो खुद ब खुद किनारे हो गये हैं या यूँ कहें कि वृद्धावस्था में धरती पर जगह नही है आपको यथोचित स्थान मिलने की।
अक्सर क्लीनिक आते हुए मंदिर के पास मुरझाए लोग बैठे दिखते हैं। हर मंदिर के बाहर ऐसी बिना चेहरे की भीड़ आपको दिखेगी अगर आप नज़र न चुरायें।
फिर जब लोग वृद्धाश्रम का जिक्र आते ही औलाद को कोसते हैं तब ताज्जुब होता है।
🙏🙏🙏🙏