बीमारी आदर्शवाद की

किसी बीमार या बुजुर्ग की सेवा करने के लिये मनुष्य में बहुत धैर्य होना चाहिए। अकेला इंसान चौबीसों घंटे शैया पर पड़े शरीर की देखभाल नही कर सकता। उसकी अपनी सेहत जवाब दे जाती है और अपने लिये वक़्त निकालना मुश्किल हो जाता है। यह संघर्ष एक दो महीने का नहीं,अक्सर कई साल का भी हो जाता है। नींद पूरी नही होती, समय से स्वयं भोजन नही कर पाता, अपने मानसिक संतुलन को बनाये रखने के लिये मित्र परिवार के साथ निश्चिंत होकर समय नही गुजार पाता।
जैसे बच्चे की देख भाल में माँ अस्तव्यस्त रहती है वैसे ही caregiver अपने सब काम छोड़कर घर में मौजूद वृद्ध की देखभाल में लगा रहता है क्योंकि सपोर्ट सिस्टम नाम की कोई चीज़ नही है हमारे यहाँ ।
तुम्हारे माँ बाप, तुम देखो।

फर्क यह है कि शिशु एक समय बाद कम देखभाल पर आश्रित रहता है, वो काफी कुछ स्वंय बताने लगता है, या करने लगता है जब कि बुजुर्ग जन की शारीरिक और मानसिक स्थिति निरंतर ढलती ही जाती है, वो कभी बेहतर नही होती।

अक्सर लोग पहली बार ही अपने घर में dementia parkinsonism जैसी स्थिति देखते हैं तो उनको पता नही होता कि वो बुजुर्ग जन भूल कैसे गये कि अभी अभी नाश्ता करा है और अब दोबारा मांग रहे हैं।

बुढ़ापे के साथ उसके लंगोटिया यार साथ में आते हैं ,यानि भुलक्कड़पन, झक्कीपना, बड़बड़ाने की आदत, कहना न मानना, तमाशा खड़ा करना, मेहमान के सामने शिकायतों का पिटारा खोलना,जान बूझकर परिवार को गैर जिम्मेदार दिखाने की कोशिश, झूठ बोलना, दवा दो दो बार खा जाना, नुकसान वाले पदार्थ का सेवन करना, ऊँची आवाज़ में टी वी देखना, पूरी रात जागकर खटर पटर करना, यहाँ तक कि अश्लील हरकत करना,यह सब दिमागी सुकड़न का नतीजा होता है।

हम अनजाने में उस परिवार पर ठीक से खयाल नही रखने का दोष देने लगते हैं। बुजुर्ग के मैले कपड़े, घर से निकलकर भटकने की आदत पर ताने मारते हैं, यह नही सोचते कि परिवार के सदस्य पूरा समय हाथ थामकर नही बैठ सकते।
अगर महिला दोपहर अपने बच्चे को स्कूल से लेने गई है और घर का दरवाज़ा बाहर से लाॅक करा है, संयोग से बुजुर्ग भीतर से दरवाज़ा पीटने लगे तो पड़ोसियों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है और लोग परिस्थिति को समझ कर सहयोग देने की जगह उलाहना देने लगते हैं।

जाहिर है कि जब बुजुर्ग की शारीरिक और मानसिक स्थिति ठीक नही है और न ही किसी इलाज़ से ठीक हो सकती है, उस परिवार, खासकर गृहिणी को ही देखभाल करनी होती है। ऐसी परिस्थिति में घरेलू मेड को पूरा दिन मदद के लिये रखने के अलावा कोई विकल्प नही होता। और एक आया रात को ध्यान रखने के लिये चाहिये होती है जिसका मिलना उतना ही आसान है जितना सरस्वती माँ का।
मध्यम वर्गीय परिवारों के लिये यह बहुत महंगा पड़ता है। अगर दोनों परिवार के सदस्य काम काजी हैं तो एक को काम छोड़कर घर रहना पड़ता है और यह सोचने का विषय ही नही है कि ऐसे में कौन हमेशा के लिये अपना काम छोड़कर घर पर चौबीसों घंटे सेवा करेगा।

यही नही, बच्चों को समय से भोजन न मिलना, उनकी परवरिश- पढ़ाई पर ध्यान न दे पाना, उनके खर्चों में कटौती, नींद पूरी न होना, घर का तनावपूर्ण माहौल, दवाओं का अंबार, रिशतेदारों का आना जाना, पडोसियों के तानें, यह सब भी स्कूली बच्चों को त्रस्त कर देते हैं।

  हमारा समाज आदर्शवादी है, माँ बाप की सेवा से बड़ा  धर्म नही है। कितना अच्छा चित्र लगता है ना, बच्चे दादा दादी की गोद में बैठकर पंचतंत्र की  कहानियाँ विस्मय से  सुन रहे हैं। हकीकत में ऐसा कुछ नही होता है। उस उम्र  तक आदमी अपना अस्तित्व बचाये रखकर लंबा जीना चाहता है, वो अपनी ताकत बच्चों को घुमाने खिलाने पढ़ाने में लगा ही नही सकता। एक समय में ऐसा होता होगा, इस बात से इंकार नहीं, पर तब शादियाँ बीस वर्ष की उम्र तक   हो जाती थीं और दादा दादी के बाल सफेद नही हुए होते थे। अब सफेद बाल वाले माँ बाप ही चारों ओर दिखाई देते हैं। 

हम वृद्धाश्रम को जेल मानकर उनके इक्के दुक्के बच्चों को कोसते हैं । जिसने अपने बुजुर्गों की सेवा नही करी उसको स्वर्ग नही मिलेगा, बस।
बीसी उसको ढंग की नौकरी अब जाकर मिली है छत्तीस साल की उम्र में , उसने करोड़ों का लोन ले रखा है, वो छपरौली की पंसारी की दुकान की गद्दी पर बैठा गल्ले में नोट नहीं जोड़ रहा है।
उसकी नौकरी दिन में छत्तीस घंटे की है, उसे अपने खाने नहाने सोने की फुर्सत नही है, उसकी नौकरी पलक झपकते ही कोई और लपक लेगा, समझो। वो पूरी शाम बैठकर बाऊजी अम्माजी के पैर नही दबा सकता।

हर बच्चा अपने माँ बाप के लिये जान क़ुर्बान कर दे तभी माना जायेगा कि वो अच्छा बेटा है, तब उसे शाबासी मिलेगी और समाज़ लम्बी साँस खींचकर अपने सुखद बुढ़ापे की ओर से निश्चिंत हो जायेगा।
लेकिन बेटियों को शादी के बाद पलटकर माँ बाप का मुख नही देखना चाहिए। सेवा करना दूर की बात है, वो केवल पुत्र का अधिकार है, पुत्री का नहीं। पुत्री जिस घर की बहू है, बस वहीं दिन रात सेवा करे, नौकरी पैसा कमाना छोड़ कर सास ससुर की सेवा करे, यही उसका कर्तव्य है।
फिर क्यों न लोग पुत्र और केवल पुत्र की कामना करेंगे।

ऐसे अनेक बुजुर्ग हैं जो अपने घरों में अकेले पड़े है, बच्चे एक या दो, जो विदेश या दूसरे शहर में बस गये हैं। एक ओर बच्चों की विवशता है कि वो अपना जीवनयापन छोड़ कर वापस नहीं आ सकते और न ही बुजुर्ग को अपने साथ ले जा सकते हैं। दूसरी ओर, अक्सर लोग अपना घर बार नही छोड़ना चाहते, प्रेम अटका पड़ा होता है अपने बनाये मकान में। वो अपने बनाये घोंसले में ही जीवन की संध्या बिताना चाहते हैं। उनके इस निर्णय का सम्मान करना ही होगा, आखिर यह उनका हक है।

आने वाले समय में भारत के छोटे बड़े, सभी प्रकार के शहरों में बुजुर्ग जन की सुरक्षा सबसे बड़ी चुनौती रहेगी।

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